समान नागरिक सहिंता
समान नागरिक सहिंता क्या है ?
समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) क्या है?
- भारतीय संविधान के भाग 4 (राज्य के नीति निदेशक तत्त्व) के तहत अनुच्छेद 44 के अनुसार भारत के समस्त नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता होगी। इसका व्यावहारिक अर्थ है कि, भारत के सभी धर्मों के नागरिकों के लिये एक समान धर्मनिरपेक्ष कानून होना चाहिये। संविधान के संस्थापकों ने राज्य के नीति निदेशक तत्त्व के माध्यम से इसको लागू करने की ज़िम्मेदारी बाद की सरकारों को हस्तांतरित कर दी थी।
- समान नागरिक संहिता के अंतर्गत व्यक्तिगत कानून, संपत्ति संबंधी कानून और विवाह, तलाक तथा गोद लेने से संबंधित कानूनों में मत भिन्नता है।
नोट: भारत में अधिकतर व्यक्तिगत कानून धर्म के आधार पर तय किये गए हैं। हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध धर्मों के व्यक्तिगत कानून हिंदू विधि से संचालित किये जाते हैं, वहीं मुस्लिम तथा ईसाई धर्मों के अपने अलग व्यक्तिगत कानून हैं। मुस्लिमों का कानून शरीअत पर आधारित है, जबकि अन्य धार्मिक समुदायों के व्यक्तिगत कानून भारतीय संसद द्वारा बनाए गए कानून पर आधारित हैं। अब तक गोवा एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ पर समान नागरिक संहिता लागू है।इसके अलावा किसी भी अन्य राज्य द्वारा इसको लागू करने में कोई तत्परता नहीँ दिखाई।
समान नागरिक संहिता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि।
भारत मे समान नागरिक संहिता को लागू करने का इतिहास बहुत पुराना है, सन् 1835 में जब भारत ब्रटिश सरकार के अधीन था, तब एक रिपोर्ट सोपि गई थी, जिसमे समान नागरिक संहिता लागू करने की बात कही गई थी, परंतु व्यकिगत मामलों में हस्तक्षेप न करते हुए, आपराधिक मामलों की एक समान संहिता बनाई गई जिसमें आपराधिक मामलों की भारतीय दंड संहित ,भरतीय साक्छ्य अधिनियम , ओर सविंदा अधिनियम को शामिल किया गया, इसमें हिन्दू विधि,और मुस्लिम विधि को पृथक रखा गया, सन 1941 में बी यन राय कमेटी का ब्रिटिश सरकार द्वारा गठन किया गया , जिसमे हिन्दू शास्त्रों को आधार मान कर संहिता बद्धको से एक कानून बनाने का प्रयास किया जो महिलाओं को अधिकार प्रदान करने की बात करती हैं, इसके साथ ही समिति द्वारा उत्तराधिकार अधिनियम ओर हिन्दू विवाह अधिनियम के अंतर्गत कानून बनाने की बात की , स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् सन 1951 में बी.एन. राय कमेटी द्वारा तयार मसौदे को डॉ बी. आर. अम्बेडकर की अध्यक्छ्ता वाली संसद की प्रवर समिति के समक्छ रखा गया , सन 1952 में उक्त बिल पर संसद में चर्चा शुरू हुई बिल में कई कमिया होने के कारण इसे सुधार के लिए भेज दिया गया सुधार उपरांत सन 1956 में इसे लागू किया गया जिसके अंर्तगत जैन ,बुद्ध ,सिख , आदि धर्मो के व्यक्तिगत क़ानून को शामिल किया ,जो हिन्दू उत्तराधिकार अधिनयम 1956 के नाम से लागू हुआ ,साथ हिन्दू विवाह अधिनियम को भी लागू किया गया |
हलाकि मुस्लिम, इसाई और पारसी लोगों के लिये अलग-अलग व्यक्तिगत कानून थे।
- कानून में समरूपता लाने के लिये विभिन्न न्यायालयों ने अक्सर अपने निर्णयों में कहा है कि सरकार को एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की दिशा में प्रयास करना चाहिये।
- शाह बानो मामले (1985) में दिया गया निर्णय सर्वविदित है।
- सरला मुद्गल वाद (1995) भी इस संबंध में काफी चर्चित है, जो कि बहुविवाह के मामलों और इससे संबंधित कानूनों के बीच विवाद से जुड़ा हुआ था।
व्यक्तिगत कानूनों पर समान नागरिक संहिता के निहितार्थ
- समाज के संवेदनशील वर्ग को संरक्षण
- समान नागरिक संहिता का उद्देश्य महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों सहित संवेदनशील वर्गों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है, जबकि एकरूपता से देश में राष्ट्रवादी भावना को भी बल मिलेगा।
- कानूनों का सरलीकरण
- समान संहिता विवाह, विरासत और उत्तराधिकार समेत विभिन्न मुद्दों से संबंधित जटिल कानूनों को सरल बनाएगी। परिणामस्वरूप समान नागरिक कानून सभी नागरिकों पर लागू होंगे, चाहे वे किसी भी धर्म में विश्वास रखते हों।
- धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को बल:
- भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द सन्निहित है और एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य को धार्मिक प्रथाओं के आधार पर विभेदित नियमों के बजाय सभी नागरिकों के लिये एक समान कानून बनाना चाहिये।
- लैंगिक न्याय
- यदि समान नागरिक संहिता को लागू किया जाता है, तो वर्तमान में मौजूद सभी व्यक्तिगत कानून समाप्त हो जाएंगे, जिससे उन कानूनों में मौजूद लैंगिक पक्षपात की समस्या से भी निपटा जा सकेगा।
चुनौतियाँ
- केंद्र सरकार के पारिवारिक कानूनों में मौजूद अपवाद
- स्वतंत्रता के बाद से संसद द्वारा अधिनियमित सभी केंद्रीय पारिवारिक कानूनों में प्रारंभिक खंड में यह घोषणा की गई है कि वे ‘जम्मू-कश्मीर राज्य को छोड़कर पूरे भारत में लागू होंगे।’
- इन सभी अधिनियमों में 1968 में एक दूसरा अपवाद जोड़ा गया था, जिसके मुताबिक ‘अधिनियम में शामिल कोई भी प्रावधान केंद्रशासित प्रदेश पुद्दुचेरी पर लागू होगा।’
- एक तीसरे अपवाद के मुताबिक, इन अधिनियमों में से कोई भी गोवा और दमन एवं दीव में लागू नहीं होगा।
- नगालैंड और मिज़ोरम से संबंधित एक चौथा अपवाद, संविधान के अनुच्छेद 371A और 371G में शामिल किया गया है, जिसके मुताबिक कोई भी संसदीय कानून इन राज्यों के प्रथागत कानूनों और धर्म-आधारित प्रणाली का स्थान नहीं लेगा।
- सांप्रदायिक राजनीति
- कई विश्लेषकों का मत है कि समान नागरिक संहिता की मांग केवल सांप्रदायिक राजनीति के संदर्भ में की जाती है।
- समाज का एक बड़ा वर्ग सामाजिक सुधार की आड़ में इसे बहुसंख्यकवाद के रूप में देखता है।
- संवैधानिक बाधा
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25, जो किसी भी धर्म को मानने और प्रचार की स्वतंत्रता को संरक्षित करता है, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समानता की अवधारणा के विरुद्ध है।
आगे की राह
- समाज के संवेदनशील वर्ग को संरक्षण
- परस्पर विश्वास निर्माण के लिये सरकार और समाज को कड़ी मेहनत करनी होगी, किंतु इससे भी महत्त्वपूर्ण यह है कि धार्मिक रूढ़िवादियों के बजाय इसे लोकहित के रूप में स्थापित किया जाए।
- एक सर्वव्यापी दृष्टिकोण के बजाय सरकार विवाह, गोद लेने और उत्तराधिकार जैसे अलग-अलग पहलुओं को चरणबद्ध तरीके से समान नागरिक संहिता में शामिल कर सकती है।
- सभी व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध किया जाना काफी महत्त्वपूर्ण है, ताकि उनमें से प्रत्येक में पूर्वाग्रह और रुढ़िवादी पहलुओं को रेखांकित कर मौलिक अधिकारों के आधार पर उनका परिक्षण किया जा सके
- श्रोत -
- द हिन्दू समाचार पत्र
- द्रष्टि आई. ये. एस. वैब साइड
- साभार
- डॉ प्रदीप कुमार तिवारी
- सहायक प्राध्यापक
- एल.एन.सी.टी
- विश्व विद्यालय (विधि संकाय )